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Monday 2 April 2018

यात्रा वृतांत : यादों की तिजोरी से निकला खजाना

उस दिन सुबह से सूरज आग उगल रहा था, पर दोपहर बाद मौसम ने अचानक करवट बदली और हल्की बारिश के बाद गर्मी-उमस सब गायब हो गयी, आसमान पर काले बादल छाये रहे, पर हम छह दोस्तों का दिल 140 की स्पीड से धड़क रहा था क्योंकि ट्रेन छूटने की चिंता में सब के सब इधर-उधर भाग रहे थे, कोई सामने आती बसों को आस भरी नजरों से देख रहा था कि शायद ये बस हम लोगों को सिकंदराबाद रेलवे स्टेशन तक पहुंचा दे, जबकि कुछ लोग कैब बुक करने के लिए इंटरनेट खंगाल रहे थे और इंटरनेट की धीमी रफ्तार को 180 की गति से गालियां दिये जा रहे थे तो कुछ बार-बार ट्रेन छूटने की अनवरत रट लगाये बैठे थे, जैसे-तैसे इंतजार खत्म हुआ, एक टैक्सी आकर रुकी, पर उसने छह लोगों को एक साथ ले जाने से मना कर दिया, फिर अचानक सभी के चेहरे पर पहले जैसे भाव तैरने लगे और सब के सब उसी मुद्रा में आ गये, फिर कोई कह रहा था कि अरे! चार लोग इस टैक्सी में बैठकर निकल जाओ, बाकी हम लोग आगे देखते हैं, कई बार कहने के बाद आखिरकार भीम, मनीष, प्रीतेश और राम बालक उस टैक्सी में सवार होकर स्टेशन की ओर चल पड़े।
 
पर एक बात थी कि जितना बस स्टैंड पर खड़े विवेक और सुधीर बेचैन थे, उतने ही बेचैन हम लोग सड़क पर दौड़ती कार में बैठकर भी महसूस कर रहे थे और कार की स्पीड बढ़ने के साथ हम लोगों की धड़कने राहत महसूस करती और कार की रफ्तार कम होते ही धड़कने अचानक बढ़ जाती थी, बार-बार गूगल मैप पर नजरें गड़ा रहे थे, समय और दूरी का कैलकुलेशन किये जा रहे थे, यही वजह थी कि सब के सब एक दूसरे से फोन पर चिपके थे, पल-पल की लोकेशन एक दूसरे से शेयर कर रहे थे, हालांकि हम चार लोग ट्रेन छूटने से ठीक एक मिनट पहले ट्रेन के पास पहुंचे और पहुंचते ही ट्रेन का ड्राइवर आखिरी हॉर्न बजाया, मनीष और प्रीतेश ट्रेन के अंदर दाखिल हुए, भीम और राम बालक ट्रेन के साथ चहलकदमी करते हुए विवेक और सुधीर का इंतजार करते रहे, अगले ही पल सामने से दौड़ते हुए सुधीर और विवेक ने एंट्री मारी तो एकबारगी चिल्ला उठे कि ट्रेन में चढ़ो-ट्रेन में चढ़ो और अगले ही पल ट्रेन ने भी रफ्तार पकड़ ली।
स्पीड पकड़ती ट्रेन में दाखिल होते ही सबकी धड़कनें सामान्य होने लगीं और सबने उपर वाले को धन्यवाद दिया, फिर इसके बाद सब एक दूसरे को देरी के लिए जिम्मेदार ठहराने लगे, कोई कहता की सुधीर ने रूम पर पहुंचकर कोई काम नहीं किया, उपर से रूम से गायब हो गया सो अलग। सुधीर ने पूरा काम किया होता तो इस बेतरतीब तरीके से हांफते हुए स्टेशन नहीं पहुंचना पड़ता। उपर से राम बालक अपने सांवले चेहरे को सलोना बनाने के लिए स्टेशन के लिए निकलने से ठीक पहले शेविंग करने लगे, वो न जाने किसे दिखाने के लिए इस कदर बेचैन थे कि नहीं! सेविंग तो करने के बाद ही चलूंगा, जबकि उसने बड़ी शेविंग उनमें से कई लोगों की थी। हालांकि, एक घंटे की जद्दोजहद के बाद सब अपनी-अपनी सीट पर 180 डिग्री पर चिपक गये।
सीट पर चिपकने के थोड़ी देर बाद टीटीई ने एंट्री मारी और टिकट देखने के बाद सामने खाली पड़ी सीट की ओर इशारा करते हुए कहा कि इस सीट पर आप सो जाइए, उस सीट पर आप चले जाइए, इस तरह उस टीटीई ने अपने फर्ज के मुताबिक बिना किसी लाग-लपेट के सभी लोगों को सीट उपलब्ध करा दिया, तभी अचानक से एहसास हुआ कि ये भला करें भगवान कोई उत्तर भारत का टीटीई नहीं था वरना उस सीट के बदले जेब ही काट लेता, जो हुज्जत करता वो अलग। फिर थोड़ी देर बाद लाइट बुझी और सब के सब खर्राटे भरने लगे, सुबह अचानक 5 बजे के आसपास राम बालक ने सभी को झकझोर जगाया कि उठो स्टेशन आ गया, जल्दी उतरो-जल्दी उतरो। अगले ही पल सब के सब ट्रेन से नीचे उतर गए।
अब भद्राचलम रोड से भद्राचलम मंदिर तक जाने की जद्दोजहद शुरू हुई, कोई ऑटो वाले से बात कर रहा तो कोई बस वाले से पूछ रहा, आधे घंटे बाद एक ऑटो वाला तैयार हुआ, फिर सभी लोग ऑटो में सवार हो गए, सुनसान सड़कें थी, दोनों किनारों पर कहीं धान की फसल लहलहा रही थी तो कहीं कपास, जबकि थोड़ी-थोड़ी दूरी पर यूकेलिप्टस के झुंड दिखाई दे रहे थे, ऐसा लग रहा था जैसे वाकई भारत की आत्म के इर्द-गिर्द हम लोग भटक रहे थे, इसी उधेड़बुन में 40 किमी का सफर कब पूरा हो गया, पता ही नहीं चला, जबकि एक छोटे से ऑटो में बड़ी मुश्किल से ड्राइवर को लेकर सात लोग बैठ सकते हैं, फिर भी बड़े आनंद से ये सफर पूरा हो गया।
मंदिर के पास ऑटो वाले ने उतारा फिर वहां से हम लोग मंदिर के करीब तक पैदल ही हंसी-ठिठोली करते पहुंच गए, सुबह का वक्त था, वहां पहुंचते ही सबकी नजरें शौचालय की तलाश कर रही थी, पर कहीं नजर नहीं आ रहा था, बड़ी मुश्किल से एक दो जगह बात किये तो कोई पांच सौ मांगे तो चार सौ, इसी तरह पूछते हुए आगे बढ़ते रहे और गोदावरी नदी को दूर से एक झलक देखा, वहीं पूछा तो पता चला की ठीक आपके पीछे सार्वजनिक शौचालय है, वहां पहुंचकर सभी लोग नित्य क्रिया पूरा किये और फिर नदी की ओर चल पड़े, वहां पहुंचकर सब के सब अंडरवीयर में नजर आने लगे और अगले पल सब नदी के जल में अठखेलियां करने लगे, करीब एक से डेढ़ घंटे तक हम सब मस्ती करते रहे, फोटो खींचते रहे, सेल्फी लेते रहे, जब थकान मसहूस होने लगी तब सब लोग बाहर निकले और तैयार होकर दर्शन के लिए बनी लाइन में खडे़ हो गए। इस मंदिर के अंदर भगवाने श्रीराम माता सीता के साथ विराजमान हैं, ये भद्राचल पहाड़ी पर स्थित है, इसे दक्षिण की अयोध्या भी कहा जाता है।
मंदिर की लाइन में लगने के थोड़ी देर बाद हमारे साथियों का सब्र टूटने लगा, जो लोग पूरी रात सफर किए, घंटों ऑटो में चले, फिर पैदल चले, उनका भी ईमान मंदिर की लाइन में डोल गया और वो बंदर की तरह इधर-उधर लांघने लगे, इस दौरान कई लोग चीखे-चिल्लाए, पर उसका कोई असर नहीं हुआ और लाइन को तोड़ते हुए पहले विवेक निकला, उसके पीछे मनीष, फिर सुधीर और प्रीतेश, इसके बाद राम बालक कोशिश कर के भी आगे नहीं जा पाये और चार-पांच लोगों को ही पीछे कर पाये, जो थोड़ी देर बाद हमारे साथ हो लिए, इस दौरान लाइन में खड़े लोगों को पीने के लिए कुछ पेय दिया जा रहा था, जिसके लिए दर्शन की लाइन में लगे लोग इतना बेचैन दिख रहे थे, मानो इस पेय के पी लेने से उनको स्वर्ग मिलने वाला है, कोई एक बार भी नहीं पा रहा तो कोई गिलास पर गिलास गटके जा रहा।
सभी लोग थोड़ा आगे-पीछे मंदिर में दाखिल हुए और दर्शन किये, जहां श्रीरामचंद्रजी माता सीता के साथ विराजमान हैं, साथ में लक्ष्मण भी मौजूद हैं, पर वीआईपी लोगों की मौजूदगी की वजह से मंदिर के पुजारी लोगों को जल्दी-जल्दी बाहर निकाल रहे थे, ताकि वीआईपी लोगों को कोई परेशानी न होने पाये, ऐसा करके उस मंदिर के पुजारी संविधान को अपने पैरों से कुचल रहे थे, वो भी माननीयों की मौजूदगी में। हालांकि, मंदिर अंदर से जितना आकर्षित करता है, बाहर का नजारा भी उससे कम नहीं है क्योंकि मंदिर काफी ऊंचाई पर बना है, जहां से गोदावरी नदी में हिचकोलें खाती कश्तियां और नगर का सौंदर्यीकरण मन को अंदर तक आह्लादित करता है।
दर्शन करने के बाद सभी लोग बिछड़ गए, ऐसा इसलिए हुआ कि हम लोग खुद को बुद्धिजीवी मानते थे, कोई किसी से कम नहीं था, मैं भी कभी बैग वाले के पास जाता तो कभी मोबाइल वाले के पास, पर कोई नजर नहीं आता, तभी राम बालक दिखाई पड़े, अब दोनों लोग मिलकर चारो को ढूंढ़ने लगे, आधे घंटे बाद दोनों लोग थक गए, कहीं बैठने की जगह नहीं थी तो सामने बालाजी का मंदिर था, वहां चले गए, वहां से लौटा तो ये चारो उल्टा चोर कोतवाल को डांटे जैसे सुधीर हमी से पूछ बैठे कि कब से ढूंढ़ रहा हूं, कहां गायब हो गए थे। खैर! इसके बाद अवस्थी ने कहा चलो कुछ खाते हैं हम लोग तो खा लिए हैं चलो तुम भी खा लो। फिर आगे का प्लान तय करते हैं।
वहां से फिर 40 किमी दूर पर्णकुटी जाने का प्लान बना, वहां से जाने के लिए ऑटो ही एक सहारा था और पर हेड 100 रुपए फिक्स था, किसी तरह एक ऑटो वाला 500 में ले जाने के लिए तैयार हुआ, तब हम लोग पर्णकुटी पहुंचे, फिर वहां से उस जगह गए, जहां शूर्पणखा की नाक कटी थी और वहीं पर सीता माता अपने कपड़े सुखाया करतीं थी, वहां से लौटकर फिर भद्राचलम पहुंचे क्योंकि स्टेशन जाने के लिए वहां से कोई दूसरा रास्ता नहीं था, पर टिकट कन्फर्म नहीं था, अंततः टिकट रद्द हो गया और अब बस की सर्चिंग शुरू हुई, बस डिपो पहुंचे तो आधे घंटे बाद बस आने वाली थी, तभी कुछ खा-पीकर बस में सवार हो गए।
बस में सवार होने के बाद सीट की आपाधापी, किसी तरह सीट मिली तो कोई सीट फ्लेक्सिबल नहीं थी तो किसी के पास का कांच लॉक था, बस चल पड़ी, सब अपनी-अपनी सीट से चिपक गए, तभी एक घंटे के सफर के बाद बारिश होने लगी और पानी की बूंदे बस की झांकती खिड़कियों से अंदर दाखिल होने लगीं। तभी हमारे पीछे बैठे एक महाशय सुधीर को खिड़की बंद करने की नसीहत देने लगे और खुद खिड़की खोल के बैठे थे, बार-बार बंद कर रहे थे खोल रहे थे, जब पास बैठे भीम और सुधीर बारिश का आनंद लेने लगे तो उन्हें ये बात हजम नहीं हो रही थी, वो खिड़की बंद करने के लिए कह रहे थे और साथ में छोटे बच्चे के होने का हवाला भी दे रहे थे, थोड़ी झड़प भी हुई पर ये समझ नहीं आया कि आखिर उनके पास वाली खिड़की की हवा बच्चे को कोई नुकसान नहीं पहुंचाएगी और पड़ोसी की हवा उनके बच्चे का स्वास्थ्य खराब कर सकती है।
बस खम्मम डिपो से पहले एक स्टैंड पर रुकी थी, जहां से एक खुबसूरत लड़की भी बस में सवार हुई, बिल्कुल जीरो फिगर, तीखे नैन नक्श, लंबे बाल और चमकता चेहरा और उस पर बिना फ्रेम का ट्रांसपैरेंट चश्मा उसकी सुंदरता को चार चांद लगा रहे थे, ऐसा लग रहा था कि ऊपर वाले ने किसी सांचे में ढाल के निकाला है, अब वो आगे बढ़ी और हमारे साथी बस से बाहर गए थे, तभी वो सीट की तरफ इशारा करते हुए बोली ये सीट खाली है, ये बात सुनकर मेरी भी बाछें खिल गईं और हमने फौरन जवाब दिया कि विंडो सीट खाली है।

उसके सीट पर बैठने के बाद हम दोस्तों के बीच कानाफूसी होने लगी कि बगल वाली सीट पर मैं बैठूंगा, नहीं वहां तो मैं ही बैठूंगा, तभी हमने कहा कि कोई नहीं बैठेगा, जो जहां बैठा है वहीं बैठा रहे, इसके बाद हमारा एक साथी बस में चढ़ा और हमने उसकी ओर इशारा करते हुए कहा कि तुम उस सीट पर बैठ जाओ, तब बाकी हम पांच लोग आपस में उस दोस्त के भाग्य को कोसने लगे कि ये तो बड़ा लकी निकला, अब बार-बार उस पर दबाव बना रहे हैं कि उससे बात करो-बात करो।

आपकी गुप्त जानकारियों को सियासी हथियार बना रहा फेसबुक!  

खैर! थोड़ी देर बाद उसने बात करनी शुरू कर दी और अंततः थोड़ी देर के बाद दोनों एक दूसरे से घुल-मिल गए, दोनों ने अपना-अपना परिचय दिया। तब पता चला कि वो लड़की बीटेक कर चुकी थी और खम्मम में AEE की परीक्षा देकर हैदराबाद लौट रही थी, जिसके चलते वो अकेले बस में सफर कर रही थी, हालांकि उसके पूर्वज भी राजस्थान से थे, जोकि हैदराबाद आकर बस गये थे, तब से अगली पीढ़ी यहीं की होकर रह गयी, उसे अपने पुराने घर के बारे में बहुत कुछ पता नहीं था, पर इस घर में उसके साथ उसका डॉक्टर भाई, विधवा मां और बैंक मैनेजर बहन के साथ रहती है, हालांकि भाई-बहन की शादी हो चुकी है।
हालांकि, यादगार लम्हों के साथ सफर पूरा हुआ और रात दो बजे के करीब बस हम लोगों को भाग्यलता में उतार कर बस आगे बढ़ गई और इस तरह सुखद यात्रा का समापन हुआ, पर एक बात तो थी कि सुधीर साथ नहीं होते तो शायद खाने-पीने का ध्यान नहीं रहता और राम बालक का पेट भी खराब नहीं होता क्योंकि कुछ भी खाने-पीने की चीज देखकर सुधीर के मुंह से पानी टपकने लगता और जब तक खा न लें चुप नहीं बैठते थे। इसके बाद पैदल चलकर हम लोग रूप पर पहुंचे और थोड़ी देर बाद सब खर्राटे भरने लगे और सुबह होते ही सब के सब कोल्हू से जुड़ गए और कोल्हू के बैल की तरह कोल्हू के चक्कर काटने लगे।

2 comments:

  1. यात्रा ब्रतान्त पढ़ के ऐसा लगा जैसे में भी आप लोंगो के साथ घूम आया ।
    शानदार , मजा आ गया सर जी ।

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